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उत्तराखंड के पहाड़ बारिश के पानी से खोखले हो रहे

जोशीमठ: हिमालयी क्षेत्र के पहाड़ पहले से ही कमजोर हैं। अन्य पर्वत शृंखलाओं की तुलना में यहां के पत्थरों के बीच ज्वाइंट्स ज्यादा हैं। इसकी वजह से खराब ड्रेनेज सिस्टम और बारिश का पानी इन ज्वाइंट्स के जरिये पहाड़ों को भीतर से खोखला कर रहा है। नतीजतन साल दर साल भू-धंसाव और भूस्खलन सरीखी आपदाएं प्रदेश और यहां के वासियों को दर्द दे रही हैं…

उत्तराखंड राज्य में भूस्खलन न केवल जान और माल की हानि का सबब है, बल्कि भूस्खलन से प्रभावित होने वाले मार्गों के चलते चारधाम यात्रा और पर्यटन के जरिये होने वाले रोजगार पर भी असर पड़ता है।

ताजा घटनाओं में जोशीमठ और उत्तरकाशी में वरुणावत पर्वत की आपदाएं इसी कड़ी का हिस्सा हैं। ऐसी घटनाओं में अधिकतर वे हिस्से शामिल हैं, जहां कमजोर पहाड़ों की तीव्र ढलानों पर भार वहन क्षमता दरकिनार कर बेतरतीब भवनों का निर्माण किया गया है।

वैज्ञानिक डा. स्वप्नामिता वैदीस्वरण का कहना है कि आबादी वाले क्षेत्रों में ड्रेनेज सिस्टम बनाए नहीं गए हैं और कई जगह तो प्राकृतिक रूप से बने ड्रेनेज के ऊपर भी निर्माण कर दिया गया। इससे आबादी क्षेत्र से निकलने वाला पानी और बारिश का पानी भी पहाड़ों में समा जा रहा है जो खतरे का सबब है। वाडिया इंस्टीट्यूट के भूकंप वैज्ञानिक डा. नरेश कुमार का कहना है कि तीव्र ढलान पर निर्माण खतरे का कारण बन रहे हैं।

बोल्डर नहीं पूरा पहाड़ आ रहा भूस्खलन की चपेट में
रुद्रप्रयाग जिले के गौरीकुंड में डाट पुलिया के समीप पिछले साल भूस्खलन हुआ। इसमें दस लोगों की मौत हो गई। 13 लोगों का अभी तक पता नहीं चला। गौरीकुंड हाईवे पर तलसारी गांव के नीचे चट्टान टूटने से पांच व्यक्तियों की जान चली गई। कुंड से गुप्तकाशी के बीच जगह-जगह धंसाव की स्थिति है। ऋषिकेश बदरीनाथ मार्ग पर भी नरकोटा से रुद्रप्रयाग के बीच दो नए भूस्खलन जोन सक्रिय हैं। कोटद्वार पौड़ी हाईवे पर आमसौड़ में भूस्खलन से आबादी को भी खतरा बना है। चमोली जिले में थराली के पास नया भूस्खलन क्षेत्र सक्रिय होने से आए दिन मार्ग बंद हो रहा है। जोशीमठ से पहले पग्नू गांव में एक साल से 50 से 60 घरों में दरारें आ रही हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि पूरे प्रदेश के पहाड़ों की प्रकृति और मजबूती का अध्ययन कर काम किए जाने की जरूरत है।

20 साल बाद… फिर वरुणावत की दहशत
उत्तरकाशी के वरुणावत पर्वत ने वर्ष 2003 में दुनिया का ध्यान तब अपनी ओर खींचा जब यहां आए भूस्खलन से काफी तबाही मची। अब 20 साल बाद फिर यह दहशत का पर्याय बनने को बेकरार है। यहां से आफत के पत्थर बरस रहे हैं। आंकड़ों के अनुसार बरसात में सौ से अधिक जगहों पर भूस्खलन और भूधंसाव जैसी घटनाएं लोगों को डरा रही हैं। वैज्ञानिकों की माने तो इसके पीछे उत्तराखंड के पहाड़ की प्रकृति और मानवीय दखल पूरी तरह से जिम्मेदार है।

उत्तराखंड में आपदा की बड़ी वजह कटोरानुमा आकृति
कई बड़े भूस्खलन का कारण बादल फटना या अतिवृष्टि जैसी वजह हैं। राष्ट्रीय जल विज्ञान के वैज्ञानिकों का एक शोध बताता है कि अपर गंगा बेसिन (यूजीबी) में हिमालयी क्षेत्र की टोपोग्राफी कटोरानुमा है। इसके कारण इस आकृति में बनने वाला मानसून का प्रभाव आगे नहीं बढ़ पाता और घाटियों में अपेक्षाकृत अधिक तापमान के चलते बादल और पानी का घनत्व ऊपर जाकर बढ़ जाता है। इसके चलते ज्यादातर एक ही जगहों पर पिछले दस सालों में अतिवृष्टि और बादल फटने की 57 घटनाएं हो चुकी हैं।

यें हैं कुछ नए भूस्खलन क्षेत्र

– कालसी चकराता मार्ग पर
– ककाड़ी में भूस्खलन
– कोटद्वार पौड़ी हाईवे पर
– आमसौड़ में भूस्खलन
– सोनप्रयोग में पावर हाउस के समीप भूस्खलन
– रुद्रप्रयाग- गौरकुंड हाईवे पर
– तलसारी गांव के पास भूस्खलन
– गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर
– उत्तरकाशी में मनेटी से आगे
– बिशनपुर गांव के समीप भूस्खलन
– गौरकुंड में डाट पुलिया के समीप भूस्खलन
– सिमली-ग्वालदम अल्मोड़ा हाईवे
– पर सुनला थराली के पास
– देवाल खेता मार्ग पर सुयालकोट
– गांव के पास भूस्खलन
– ऋषिकेश-बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर नरकोटा से रुद्रप्रयाग पेट्रोल पंप के समीप
– ऋषिकेश- गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर हिंदोलाखाल, सिलबन में भूस्खलन

ज्वाइंट्स के जरिये भीतर जमा पानी भूस्खलन की वजह
तीव्र ढलान पर क्षमता से अधिक निर्माण आपदाओं का कारण है। हिमालयी क्षेत्र के पहाड़ों में जहां पत्थरों की प्रकृति कमजोर है वहीं उनके बीच में ज्वाइंट भी ज्यादा हैं। ऐसे में ड्रेनेज सिस्टम ठीक नहीं होने से आबादी का पानी इन ज्वाइंट्स से जगह बना लेता है। फिर भीतर जमा पानी भारी दबाव पैदा करता है। इसकी बानगी जोशीमठ के रूप में सबके सामने है। हम अब भी नहीं संभले तो यह नैनीताल, अल्मोड़ा, गोपेश्वर, पिथौरागढ़ और मसूरी समेत अन्य जगहों पर भी होगा।
– प्रो. एसपी प्रधान, वैज्ञानिक  आईआईटी रुड़की

बारिश का बदलता पैटर्न भी जिम्मेदार
बढ़ती आबादी के बीच पहाड़ों पर खराब ड्रेनेज सिस्टम तो जिम्मेदार है ही, साथ ही मौसम के बदलते पैटर्न से कम समय में भारी बारिश होने से भी पहाड़ प्रभावित हो रहे हैं। देरी से हो रही बर्फबारी के बाद तापमान में अधिकता से बर्फ पिघलती है और पानी के रूप में पहाड़ों को नुकसान पहुंचाती है। पहाड़ों के भीतर और बाहरी सतह पर पानी के रिसाव से पत्थरों की पकड़ ढीली पड़ रही है।
- डा. स्वनामिता वैदीस्वरण, वैज्ञानिक, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलाॅजी

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