जी नेटवर्क का ओटीटी प्लेटफॉर्म जी5 अपने आप में एक केस स्टडी है। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में अब सबको पता है कि अगर कोई फिल्म कहीं न बिक रही हो तो उसे रिलीज करने का पक्का पता है, जी5। जी5 का ओटीटी ऐप अगर आप अपने मोबाइल पर या लैपटॉप पर खोलेंगे तो इसकी नई रिलीज फिल्म ‘अर्ध’ आपको होमपेज पर मिलेगी ही नहीं। इसे ‘सर्च’ करना पड़ता है। सिर्फ एक घंटे 26 मिनट की ये फिल्म देखकर लगता है जैसे कि कोई ‘स्टूडेंट फिल्म’ हो जिसमें काम करके राजपाल यादव ने कोई पुराना एहसान उतारा हो। राजपाल यादव के करियर की ये त्रासदी रही है कि उन्हें लोगों ने बतौर हास्य कलाकार चाहा और सराहा और वह हमेशा एक संजीदा अभिनेता, निर्माता या निर्देशक बनने की कोशिश करते रहे। उनका ध्यान कभी ‘चिड़िया की आंख’ पर रहा ही नहीं, पूरी चिड़िया पाने के चक्कर में वह बार बार लक्ष्य से भटकते रहने वाले कलाकार हैं।
फिल्म ‘अर्ध’ एक ऐसे इंसान की कहानी है जो मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री में मौका पाने के सपने लेकर आया है। जिन्होंने मुंबई में लंबा वक्त गुजारा है, उन्हें पता है कि ऐसे किरदार यहां हर दुकान, गली, मोहल्ले, रेस्तरां, बस और कॉफी शॉप पर बिखरे पड़े हैं। हीरो बनने आए युवा यहां अधेड़ होने पर कुछ भी करते मिल जाएंगे। फिल्म ‘अर्ध’ का आधी उम्र पार कर चुका नायक भी यही करता है। पैसे कमाने के लिए वह शिवा से पार्वती बनता है। उसके अरमान दाल रोटी के संघर्ष में पिस रहे हैं। बीवी उसका साथ देना चाहती है लेकिन बच्चे की परवरिश और पढ़ाई में दोनों की मेहनत कम पड़ती दिखती है। पढ़ने में ये एक अच्छी और भावुक कहानी है। लेकिन फिल्म ‘अर्ध’ इस पूरे संघर्ष का कचरा इसलिए कर देती है कि निर्देशक के लिए फिल्म में राजपाल यादव के सिवा कुछ और ध्यान रखने लायक मिला ही नहीं।
गायिका पलक मुछाल के भाई पलाश पेशे से संगीतकार रहे हैं। एक संगीतप्रेमी से उम्मीद रहती है कि वह फिल्म भी सुरताल में ही बनाएगा। लेकिन, फिल्म ‘अर्ध’ देखकर लगता है कि ये फिल्म पलाश ने सिर्फ इसलिए बना ली क्योंकि उन्हें इसके लिए कलाकार मिल गए। राजपाल यादव की ये अपनी सी कहानी भी लगती है और हो सकता है कि उन्होंने हां भी इसीलिए कर दी हो। लेकिन ऐसा कुछ तो वह ‘मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूं’ में भी कर चुके हैं। राजपाल यादव रंगमंच के बेहतरीन कलाकार रहे हैं। सिनेमा ने उन्हें सम्मान भी खूब दिया लेकिन संतोषी प्राणी न होने का खामियाजा भी वह अतीत में उठा चुके हैं। फिल्म ‘भूल भुलैया 2’ ने उन्हें फिर से हिंदी सिनेमा में जगह बनाने का मौका दिया है, उम्मीद की जानी चाहिए कि वे इसे ‘अर्ध’ जैसी अधकचरी फिल्मों से गवा नहीं देंगे। फिल्म ‘अर्ध’ इसके निर्देशन और लेखन की कमजोरी के चलते प्रभावित नहीं कर पाती है। एक साधारण पुरुष के किन्नर बनने की मजबूरी के बहाने ये फिल्म मुंबई में शाम ढलते ही सड़कों पर उग आने वाले नकली किन्नरों की जिंदगी की एक शानदार कहानी बन सकती थी। ये नकली किन्नर देह सुख देने से लेकर हर वह काम करने के लिए तैयार रहते हैं, जिससे उन्हें कुछ आमदनी हो सके। शोध के स्तर पर लड़खड़ाने के बाद फिल्म कहानी और पटकथा के स्तर भी लंगड़ाने लगती है। रूबीना दिलैक जैसी कलाकार की डेब्यू फिल्म कम से कम ये नहीं होनी चाहिए थी। उनका किरदार कहीं से भी असरदार नहीं है।
जी5 पर रिलीज हुई फिल्म ‘अर्ध’ दर्शकों के धैर्य का इम्तिहान है। फिल्म देखने के बाद इस पर समय बिताने की कोफ्त भी होती है। इसे देखना सिर्फ समय की बर्बादी है, इससे बेहतर विकल्प इस सप्ताहांत दर्शकों के सामने ओटीटी और थिएटर दोनों में उपलब्ध हैं।