अमित शाह और जेपी नड्डा ने जयपुर में दो दिन कैंप कर पार्टी के सभी वरिष्ठ नेताओं से मुलाकात की और उन सभी मुद्दों को बारीकी से समझा जिनका असर चुनाव पर पड़ सकता है। इस पूरी कवायद का परिणाम यह हुआ है कि वसुंधरा राजे सिंधिया को बहुत स्पष्ट ढंग से यह बता दिया गया है कि पार्टी सामूहिक नेतृत्व में चुनाव में उतरेगी और किसी स्थानीय नेता को चेहरा नहीं बनाया जाएगा। पूरा चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर लड़ा जाएगा और उन्हीं के नाम पर वोट मांगा जाएगा।
छत्तीसगढ़ में पहले ही पार्टी के पास कोई ऐसा नेता नहीं है, जिसके चेहरे पर चुनाव लड़ा जा सके। इसे पार्टी की रणनीति कहें या मजबूरी, यहां भी मोदी के चेहरे पर ही चुनाव लड़ने का निर्णय किया गया है। मध्य प्रदेश में भी पार्टी अभी तक यह कहने का जोखिम नहीं उठा सकी है कि चुनाव के बाद उसकी ओर से मुख्यमंत्री कौन होगा। यानी यहां भी मोदी के चेहरे पर ही वोट मांगा जाएगा।
मोदी के चेहरे पर ऐसा दांव क्यों?
बड़ा प्रश्न यही है कि यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ा जाएगा तो इन चुनावों में हार-जीत की जिम्मेदारी किसकी होगी? यदि जीत हुई तब तो सब कुछ ठीक रहेगा, लेकिन यदि हार हुई तो इसका मोदी की छवि पर क्या असर पड़ेगा? इसका असर लोकसभा चुनावों पर भी पड़ सकता है।
जिस समय यह अनुमान लगाया जा रहा है कि राजस्थान को छोड़कर इन सभी राज्यों में भाजपा के लिए परिस्थिति बहुत अनुकूल नहीं है, उस समय भाजपा ने मोदी के चेहरे पर ऐसा दांव क्यों खेला? जबकि कोई विपरीत परिणाम आने पर इंडिया गठबंधन इसे मजबूती से उछालने की कोशिश अवश्य करेगा, यह माना जा सकता है।
विशेषकर यह देखते हुए कि कर्नाटक में भी यही रणनीति अपनाई गई थी। वहां भी येदियुरप्पा जैसे स्थानीय मजबूत चेहरे को किनारे रखकर मोदी के नाम पर ही वोट मांगा गया था। लेकिन पार्टी को कोई सफलता नहीं मिली। इसके पहले हिमाचल प्रदेश में भी प्रेम कुमार धूमल जैसे मजबूत स्थानीय चेहरों को पीछे रखकर केवल मोदी के चेहरे पर वोट मांगा गया, लेकिन पार्टी जीत हासिल नहीं कर सकी। यदि इन परिणामों को देखने के बाद भी पार्टी ने मोदी को चेहरा बनाने की रणनीति अपनाई है तो यह समझने वाली बात है कि आखिर उसने ऐसा क्यों किया?
मोदी के नेतृत्व में यहां मिली जीत
राजनीतिक विश्लेषक धीरेंद्र कुमार ने अमर उजाला से कहा कि इस प्रश्न का उत्तर भी उसी कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश के चुनाव परिणामों में देखा जा सकता है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि कर्नाटक में भाजपा सरकार पर भ्रष्टाचार के बेहद गंभीर आरोप थे। भाजपा की अपनी आंतरिक रिपोर्ट में कहा गया था कि पार्टी वहां 40 सीटें भी हासिल करने की स्थिति में नहीं थी। यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की करिश्माई छवि का ही परिणाम था कि भाजपा वहां 66 सीटों के सम्मानजनक स्कोर तक पहुंच सकी।
इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश में भी भाजपा के खिलाफ बदलाव की जबरदस्त लहर थी। इसके बाद भी भाजपा ने मोदी के चेहरे को आगे रखकर ही चुनाव लड़ा। तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी भाजपा के वोट प्रतिशत में कांग्रेस की तुलना में एक प्रतिशत से भी कम वोटों का अंतर रहा था। थोड़े बहुत अंतर से भी चनाव परिणाम कुछ भी हो सकता था। इसे मोदी के चेहरे का ही असर कहा जा सकता है।
इसके पहले भी गुजरात और उत्तराखंड का पिछला चुनाव, हरियाणा का चुनाव, उत्तर प्रदेश विधानसभा का 2017 का विधानसभा चुनाव और पूर्वोत्तर राज्यों के चुनाव मोदी के चेहरे पर ही लड़े गए थे। पार्टी ने यहां भी जीत हासिल किया था। ऐसे में ब्रांड मोदी की लोकप्रियता और विश्वसनीयता पर कहीं से कोई प्रश्न नहीं है।
2024 की अपनी लड़ाई ही मजबूत कर रही भाजपा!
यदि भाजपा इन राज्यों में मोदी की छवि पर चुनाव में नहीं जाती है, फिर भी मोदी इन राज्यों में पार्टी के प्रचार के लिए अवश्य जाएंगे। यदि इस परिस्थिति में पार्टी को हार मिलती है तो भी विपक्ष इसे भाजपा और मोदी की लोकप्रियता में कमी के रूप में ही प्रचारित करेगा। ऐसे में मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़कर पार्टी की स्थिति सम्मानजनक स्कोर तक लाकर भाजपा 2024 की अपनी लड़ाई ही मजबूत कर रही है, ऐसा माना जा सकता है।
धीरेंद्र कुमार ने कहा कि इसलिए इन चुनावी राज्यों में भाजपा के द्वारा मोदी को चेहरा बनाना बहुत सोचा-समझा हुआ और रणनीति के अनुसार उठाया गया निर्णय लगता है। इन्हीं राज्यों के पिछले विधानसभा चुनावों में हार के बाद भी भाजपा को लोकसभा चुनाव में जीत हासिल हुई थी। ऐसे में उन्हें लगता है कि इस बार भी इन चुनाव परिणामों का मोदी की छवि पर कोई नकारात्मक असर नहीं पड़ेगा।