गीतांजलि श्री को बुकर मिलना हिंदी भाषा के लिए बड़ी बात क्यों?
मुझे यहां हर तरह से तैयार होकर आना चाहिए. यहां बारिश हो सकती है, बर्फ़ गिर सकती है, बादल भी घिर सकते हैं, धूप भी निकल सकती है. और शायद बुकर भी मिल सकता है. इसलिए मैं तैयार होकर आयी थी पर अब लगा रहा है जैसे मैं तैयार नहीं हूं. बस अभिभूत हूं.ष
हिंदी लेखिका गीतांजलि श्री जब बुकर पुरस्कार जीतने के बाद मंच से यह बात कह रही थीं तो पूरे हॉल की लाइट उनके और डेज़ी रॉकवेल के चेहरे पर थी.
गीतांजलि श्री ने श्रेत समाधिश् को इंटरनेशनल बुकर मिलने के बाद कहा – मैंने कभी ख़्वाब में भी नहीं सोचा था…
गीतांजलि श्री ने एक पर्चा निकाला और उन तमाम लोगों को धन्यवाद दिया जो श्रेत समाधिश् की यात्रा में एक ठंडी छांव की तरह उनके साथ रहे.
काव्यात्मक अंदाज़ में उन्होंने अपनी जीत को नक्षत्रों का ऐसा संयोग बताया जिसकी आभा से वो चमक उठी हैं. उन्होंने सभी शॉर्टलिस्टेड लेखकों, अनुवादकों के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए ख़ुद को सौभाग्यशाली बताया.
गीतांजलि श्री हिंदी की पहली ऐसी लेखिका हैं जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिला है. यह पुरस्कार उनके उपन्यास श्रेत समाधिश् के अंग्रेज़ी अनुवाद श्टूंब ऑफ़ सैंडश् के लिए दिया गया. इसका अनुवाद प्रसिद्ध अनुवादक डेज़ी रॉकवाल ने किया है.
हिंदी की दुनिया के लिए क्यों बड़ा है यह सम्मान?
यह पहला मौक़ा है जब कोई हिंदी रचना बुकर के लिए पहले लॉन्गलिस्टेड, फिर शॉर्टलिस्टेड और फिर बुकर से सम्मानित हुई हो. हिंदी के अधिकांश साहित्यकारों का मानना है कि राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित श्रेत समाधिश् ने श्टूंब ऑफ़ सैंडश् तक की अपनी यात्रा में हिंदी के फलक को विस्तृत करने का काम किया है.
वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी बीबीसी से कहा, ष्यह हिंदी के लिए बहुत बड़ी घटना है. हिंदी भाषा की जो रचनाधर्मिता है, यह उसका उदाहरण हैं. पूरे देश को इस पर गर्व होना चाहिए और हो रहा है. इस पुरस्कार के बाद जितने रचनाकार हैं उन्हें एक बल मिलेगा, एक ऊर्जा मिलेगी और अपनी वास्तविक शक्ति के प्रति वे आश्वस्त होंगे. सम्मान किसी रचना को कालजयी और महान तो बनाता ही है लेकिन उससे ज़्यादा उसे महान पाठक बनाते हैं. यह हिंदी की पठनीय रचना तो थी ही, अब सम्मानित भी है.ष्
वो कहते हैं कि हिंदी के रचनाकारों को हमेशा ही लगता रहा है कि उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उचित सम्मान नहीं मिला. कबीर, सूर, मीरा, तुलसी से लेकर अज्ञेय, निराला, मुक्तिबोध जैसे लेखक विश्वस्तरीय हैं लेकिन इन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई ऐसा सम्मान नहीं मिला. यह पहला ऐसा ऐतिहासिक अवसर है जब हमारी भाषा इस तरह सम्मानित हुई है.
जानेमाने कवि, आलोचक अशोक वाजपेई भी ऐसा ही मानते हैं, वो कहते हैं ष्हिंदी को ऐसी अंतरराष्ट्रीय मान्यता पहले कभी नहीं मिली. कृष्ण बलदेव वैद, कृष्णा सोबती, अज्ञेय आदि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त हैं लेकिन हमारे जीवित रहते किसी को यह पुरस्कार मिलते देखने बहुत बड़ी बात है.ष्
वो कहती हैं, ष्अगर अंग्रेज़ी में अनुवाद न हुआ होता तो क्या श्रेत समाधिश् की उतनी ही चर्चा होती जितनी आज हो रही है. जहां पुरस्कार मिला वो अंग्रेज़ी का माहौल है क्योंकि यह पुरस्कार अंग्रेज़ी अनुवाद पर ही निर्भर करता है. लेकिन इन सबके बावजूद यह हिंदी के लिए बड़ी घटना माना जा रहा है क्योंकि यहां अंग्रेज़ी का वर्चस्व काम कर रहा है.ष्
हालांकि वरिष्ठ कथाकार चित्रा मुद्गल कहती हैं, ष्हमें अनुवाद बनाम मूल कृति के विवाद में नहीं पड़ना चाहिए. यह हिंदी और भारतीय भाषाओं के लिए गौरवशाली क्षण है और मैं इसे पूरी तरह हिंदी का सम्मान मानती हूं क्योंकि कृति पहले आती है और अनुवाद बाद में.ष्
वो कहती हैं कि यह इतना गौरवान्वित करने वाला क्षण है, लग रहा है जैसे गीतांजलि के बहाने हम सभी सम्मानित हो रहे हैं.
उनके कई कहानी संग्रह भी प्रकाशित हैं. वो स्त्री मन में, समाज के भीतर, समाज की परतों में बहुत धीरे-धीरे दाखिल होती हैं और बहुत संभलकर उन्हें खोलती और समझती हैं.
हिंदी कवयित्री अनामिका ने बीबीसी को बताया, ष्गीतांजलि की सबसे बड़ी ताक़त है कि वो श्माईश् जैसे उपन्यास में ग्रामीण और कस्बाई जैसे परिवेश की कश्मकश सामने रखती हैं फिर श्तिरोहितश् में मनोवैज्ञानिक स्तर पर उतरती हैं, श्हमारा शहर उस बरसश् में बाबरी के माध्यम से राजनीतिक तनावों पर डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म की तरह पाठ तैयार करती हैं और श्रेत समाधिश् में वृद्ध स्त्री के ज़रिये बुढ़ापे का ठस्सा और युग का प्रतिनिधित्व करवाती हैं. कह सकते हैं कि गीतांजलि के कथानक की स्त्रियां पूरे हिंदुस्तान की स्त्रियों की अव्यक्त इच्छाओं का दस्तावेज़ हैं.ष्
वैसे रेत समाधि के बारे में जब मैंने बीबीसी की ओर से गीतांजलि श्री से बात की थी तो मैंने उनसे कहा था कि आपके इस उपन्यास में सब कुछ है. जैसे स्त्री है, स्त्रियों का मन है, पुरुष है, थर्ड जेंडर है, प्रेम है, नाते हैं, समय है, समय को बांधने वाली छड़ी है, अविभाजित भारत है, विभाजन के बाद की तस्वीर है, जीवन का अंतिम चरण है, उस चरण में अनिच्छा से लेकर इच्छा का संचार है, मनोविज्ञान है, सरहद है, कौवे हैं, हास्य है, बहुत लंबे वाक्य हैं, बहुत छोटे वाक्य हैं, जीवन है, मृत्यु है और विमर्श है जो बहुत गहरा है, जो श्बातों का सचश् है. जीवन की पूरी कहानी है.
गीतांजलि श्री का मानना है कि जो भी हम महसूस करते हैं वो सब एक कहानी है. यह आपकी सांस की तरह स्वाभाविक है.
उन पर कृष्णा सोबती और निर्मल वर्मा की छाया की बात कही जाती है जिसे वो सकारात्मक तरह से लेती हैं लेकिन उनका हमेशा मानना रहा है कि किसी से प्रेरित होने के बाद अपना अलग स्वर बनाना बहुत ज़रूरी है. शायद उन्होंने बनाया भी है.
जब उन्हें बुकर मिला तो मंच से गीतांजलि श्री ने हिंदी की समृद्ध साहित्यिक परंपरा की बात ज़ोर देकर कही. उन्होंने कहा कि जब किसी भाषा का साहित्य दूसरी भाषा तक जाता है तो जीवन का व्याकरण समृद्ध हो जाता है.
इस समृद्ध व्याकरण के पीछे डेज़ी रॉकवेल हैं. वो मानती हैं कि डेज़ी रॉकवेल के बिना यह सफर पूरा नहीं सकता था, जो सच भी है. उन्होंने बुकर समारोह में हिंदी अनुवादक डेज़ी रॉकवेल के साथ-साथ अपने उस फ्रेंच अनुवादक मित्र का भी धन्यवाद दिया जिसने सबसे पहले रेत समाधि का फ्रेंच अनुवाद किया था.
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अनुवादक डेज़ी रॉकवेल की भूमिका क्यों है बड़ी?
बुकर पुरस्कार के निर्णायक मंडल प्रमुख फ़्रैंक वेन जब पुरस्कार की घोषणा कर रहे थे तो उन्होंने अनुवादक और लेखक के रिश्ते को कई वाक्यों में पिरोया.
उन्होंने कहा कि साहित्य को आप सीमाओं में नहीं बांध सकते. लेखक कहानी कहते हैं लेकिन अनुवादक उसे सीमाओं से परे ले जाते हैं. लेखक राष्ट्रीय साहित्य रचते हैं और अनुवादक वैश्विक.
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गीतांजलि श्री के साथ अनुवादक डेज़ी रॉकवेल
हिंदी भाषा के उपन्यास रेत समाधि को वैश्विक स्तर पर ले जाने का काम निःसंदेह इसकी अनुवादक डेज़ी रॉकवेल ने किया है.
हिंदी कवयित्री अनामिका इसे रेत समाधि के कथानक की तरह सरहदों का हाथ मिलाना बताती हैं. वो इसे बहनापे की मिसाल कहती हैं.
उन्होंने कहा, ष्अनुवादक और रचनाकार के लिए एक दूसरे के भीतर उतरना आसान नहीं होता. ख़ासकर जब स्त्री से जुड़ा कथानक केंद्र में हो. अंग्रेज़ी हिंदी की तरह खेलती हुई भाषा नहीं है, वो हमेशा से औपनिवेशिक शासन की भाषा रही है लेकिन डेज़ी ने जिस तरह अनुवाद किया वो चौंकाता है.ष्
ख़ास बात यह है कि गीतांजलि श्री ने बीबीसी से हुई बातचीत में कहा था कि वो डेज़ी रॉकवेल को व्यक्तिगत रूप से पहले से नहीं जानती थी लेकिन जब ईमेल के ज़रिए डेज़ी ने उनके उपन्यास के कुछ अंश अनूदित करके भेजे तो उन्हें उसमें वो छवियां भी दिखाई दीं जो शायद उन्हें अपनी मूल कृति में खोजनी पड़ती.
श्टूंब ऑफ़ सैंडश् नाम से श्रेत समाधिश् के अनुवाद को श्टिल्टेड एक्सिसश् ने प्रकाशित किया है. अमेरिका में रहने वाली डेज़ी हिंदी साहित्य समेत कई भाषाओं और उसके साहित्य पर पकड़ रखती हैं. उन्होंने अपनी पीएचडी उपेंद्रनाथ अश्क के उपन्यास श्गिरती दीवारेंश् पर की है. उन्होंने उपेंद्रनाथ अश्क से लेकर खादीजा मस्तूर, भीष्म साहनी, उषा प्रियंवदा और कृष्णा सोबती के उपन्यासों का अनुवाद किया है.
बुकर समारोह में वो हरे सूट में थीं और मंच से उन्होंने पहले उस मैचमेकर को धन्यवाद दिया जिसने उन्हें गीतांजलि श्री से मिलवाया. इसके बाद वो अपने परिवार के प्रति आभार प्रकट कर रही थी. तभी ससुराल पक्ष पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि मैं एक अच्छी भारतीय बहू की तरह हूँ और फिर हिंदी में बोलीं, मैं पूरा ससुराल लेकर आयी हूं. एक ठहाका सा गूंज उठा.
इसके बाद वो अपने साथी अनुवादकों का धन्यवाद देना नहीं भूली क्योंकि अनुवादकों की मुश्किल शायद अनुवादक ही समझता है.
क्या बदलेगी इससे हिंदी की दुनिया?
हिंदी साहित्यिक दुनिया से जुड़े कई लोग मानते हैं कि हिंदी साहित्यिक दुनिया में बदलाव की बात होती है, फिर खो जाती है. यह सिलसिला चलता रहता है लेकिन जो नहीं होता वो है अनुवादकों पर विचार. आमतौर पर हिंदी में अनुवादकों के प्रति रवैया बहुत अच्छा नहीं है. उम्मीद है कि बुकर के बाद शायद कुछ बदलाव दिखे और शायद युवाओं को हिंदी साहित्य आकर्षित कर सके.
राजकमल प्रकाशन के सम्पादकीय निदेशक सत्यानन्द निरुपम कहते हैं कि इस परिघटना से हिंदी की युवा और युवतर पीढ़ी अपनी भाषा की साहित्यिक समृद्धि से नए सिरे से परिचित होगी.
अनुवाद के मुद्दे पर उन्होंने कहा, ष्अनुवाद के नाम पर केवल पुरस्कार देने भर से अनुवादक की गरिमा और अनुवाद की गुणवत्ता नहीं बढ़ेगी बल्कि अनुवादक को लेखक के बराबर समझने से स्थिति में बदलाव आएगा. इसमें हिंदी मीडिया और समाज को साथ आना होगा.ष्
वहीं चित्रा मुद्गल भी मानती हैं कि जिस तरह से गीतांजलि श्री के साथ डेज़ी रॉकवेल का नाम जुड़ गया है और बुकर में दोनों को बराबर का हक़ मिला है, ऐसे ही कदम भारत में अकादमी और प्रकाशकों को उठाने चाहिएँ जिसमें बराबरी का सम्मान हो, फिर चाहे कवर पर अनुवादक का नाम हो या बेहतर पारिश्रमिक.
इन सबके बीच ऐसे बहुत से कमेंट्स पढ़ने में आ रहे हैं जहाँ 1913 में रबीन्द्रनाथ टैगोर की गीतांजलि के बाद लगभग 110 साल बाद गीतांजलि श्री को इस तरह से ख्याति मिलने की बात कही जा रही है. यह थोड़ा अतिशयोक्ति लग सकता है लेकिन जब-जब कहीं पहला मौक़ा आता है, ऐसी बातें उठती हैं. भारतीय भाषाओं के साहित्य में भी ऐसे मौक़े कम ही आए जब उत्सव मनता दिखा हो, फिर हिंदी में तो यह पहला मौक़ा है.
गीतांजलि श्री ने पहले भी कहा था और बुकर के बाद भी कहा कि असल बात तो तब है जब हम अपने आसपास हिंदी की उन रचनाओं को देखें जो वाकई इस लायक रहीं लेकिन हमने उन पर कभी ग़ौर नहीं किया. अगर हम ऐसा कर पाते हैं तो मेरा यहां तक पहुंचना सार्थक रहेगा.